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समाज ,राजनीत और दर्शन पर क्या लिखा जाये ,रोज़ टीवी चेन्नेल्स पर देश दुनिया ,समाज और विशेषकर आम आदमी की दुर्दशा
पर इतना कुछ दिखाया जा रहा है ..लेकिन तस्वीर नहीं बदल रही ..दुष्यंत ने कहा
था की ..मेरी कोशिश है की ये सूरत बदलनी चाहिए ,इस हिमालय से कोई गंगा
निकालनी चाहिए ..कुछ नहीं बदलता ,कोई बदलने को तैयार नहीं .प्रेमचंद के ज़माने
से लेकर आज तक आम आदमी की स्थिति जस की तस है .घीसू -माधव सरीखे
गरीब पात्रों की करूँ -गाथा का निरंतर विस्तार हो रहा है . वर्तमान में .नेता ,अफसर
,ठेकेदार और महाजन की भूमिका में बहुरास्ट्रीय कंपनिया /बैंक निर्धन नागरिको का
शोषण -उत्पीरण करने पर उतारू है . .ताज्जुब होता है की आज़ादी की लड़ाई में
इन विदेशी कंपनियों के खिलाफ ही जंग लड़ी गयी थी ,आज हम उनका ही तहेदिल
से स्वागत कर रहे है .
.आज़ादी के लिए भगतसिंह ,राजगुरु ,सुखदेव जैसे नोजवानो ने फांसी के फंदे
को चूम लिया था ..क्या आज के भारत के लिए .? क्या उनके सपनो के भारत का
निर्माण हो सका है ..?.कदापि नहीं शहीदों के भारत का स्वप्न खंडित हुआ है ..अब ना
बाकी कोई आदम इस ज़माने में जो उठाये सलीब फिर अपने कंधे पर .क्या यही कहना
चाहिए ? लेकिन दुष्यंत ने एक आस जगाई थी …वे मुतमईन हैं की पत्थर पिघल नहीं
सकता ,में बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए .
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